अनुपमा...
चंद्रानी पुरकायस्थ
सावन का पहला दिन था वह,
बाहर तेज बारिश हो रही थी .
खिड़कीसे झांक कर देखा तो ,
तुम हाथ में एक रंगीन सी छत्री को पकडे हुए,
कही जा रही थी.
धुँन्दले से उदास दिन में तुम्हारा दूधसफ़ेद दुपट्टा,
जैसे इशारों में मुझको पास बुला रहा था.
और बेखबर तुम तेज तर्रार बूंदों से ,
खुद को बचाने की कौशिश में ,
एकबार उन बूंदों को ,
तो एकबार भीगे हुए अपने दुपट्टे को निहार रही थी.
मै देखता ही रह गया तुमको,अनुपमा ...
कितना समय ऐसे ही बीत गया कुछ पता नही .
तुम सावन के महीने के खिले हुए,
स्निग्ध सौम्य पुष्पसी,
मन को मोह गयी.
और मै तुम में कुछ इसतरह खो गया,
की वास्तव की दुनिया भी सपनो की नज़र आने लगी.
अचानक मेज पर रखा हुआ ,
कांच का गिलास, उलट कर जमीन पर गिर पड़ा,
मेरे सपनों की तरह,
सपनों से बाहर आकर देखा,
तो बारिश थम चुकी थी,
और तुम भी जा चुकी थी.
मन ही मन ये बिचार आया,
एक लम्हे में मैंने क्या पाया और क्या खो दिया .
तभी अचानक एहसास हुआ ,
उस एक लम्हे में सायद मै हज़ार जिंदगिया जी गया.