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Thursday, August 25, 2011

एहसास -चंद्रानी पुरकायस्थ




आज फिर छलक आई आंखों में मेरी ,
चाहत के कुछ भीगे हुए पल.
तुम ना मानो तो बस बुंदे है, मानो तो  मोती है  अनमोल.
बहुत सी अनकही बातें इस दिल में छुपायें जी रही  हूँ  ,
कभी आँखों में झाँकों  तो नजर आएँ.  
कभी दूर दूर, तो कभी पास पास , 
कुछ सपनों के दस्तक और तुम्हारा एहसास .
बड़ी हसीन लग रही हैं ये जिंदगी आजकल .
तुम क्यों हर बार सितारों  की तरह  रौशन कर जाते हो इस दिल को? 
सावन की पहली बारिश जैसी मीठी सी एक मुस्कान सजा जाते हो होठो पर मेरे, क्यों?
वक़्त या वजह, सब दायरों से  दूर , 
अपनी एक अलग ही जगह बनाये हुए हो  धड्कनों में मेरे  .
पहले कभी तो ऐसा  सोचा ना था ,
की हकीकत में भी चाहत एक मीठा सा तराना  है.
सर्दी की धुप जैसा  खुशनुमा ,चांदनी की तरह दिलकश ;
और बारिश के सुबह के जैसा हल्का हल्का दर्द जगाने वाला .
जो ना जीने देती हैं और ना ही मरने देती है .
आँखों में तुम्हारी मैंने अपनी ज़िन्दगी देखी है,
और मौत भी.
लहरों में बहती हुई कागज़ की नाव की तरह ,
मैं मौज दर मौज बहे जा रही हूँ.
तुमको ही  साहिल जान कर.
तुम्हारी हर ख़ुशी  को अपनी ख़ुशी,
और हरएक गम को अपना गम मानकर .
पर सूखे हुए पत्तों को जमीन पर गिरा हुआ देख ,
कभी कभी डर उठता हैं ये दिल.
जिस हाथ को थाम कर  चलने लगे हैं ,
कभी उसे  बेवफ़ाई से झटक कर खो ना जाना .
फिर सायद हम  संभल ना पायें .
दिल नही जनाब, काँच का आईना है .
जरा संभालके , कहीं  टूट ना जाएँ  .
पलकों पर सजायें  हुए सपनों  के मोती ,
ईधर उधर बिखर ना जाएँ .
बड़ा मुश्किल हैं  अब तुमसे  ये राज छुपा पाना.  
नामुमकीन सा लगता है आजकल ,
तुम बिन हसना-रोना , खोना पाना.
फूलों की रंगत और काटों काटों की टीस,
सब एक  सी   नजर आती है, भीड़ भी जैसे खुद हो तनहा तनहा .
सच कहतें हैं अब नामुमकीन है तुम बिन जीना ,
गुमसुम   गुमसुम    तनहा तनहा .

6 comments:

  1. आज फिर छलक आई आंखों में मेरी चाहत की की बूंदें....आज फिर छलक आई आंखों में मेरी चाहत की की बूंदें...
    ....आपके लिखी हुयी रचना बहुत प्यारी है ,,बस थोड़ी से कमी है ,आप अगर कम सब्दों का पयोग करे और ....थोड़ी और उसे जमाकर लिखने का प्रयत्न करे ..
    बहुत ही सुन्दर ,प्रयाश .,,...

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  2. Aapke lekhan me ek saadgi hai aur gahraai bhi...

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  3. apne bakai bahut bahut achha likha hai.

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