टूटे हुए सपनो की आहट - चंद्रानी पुरकायस्थ
तुमने कहाँ था "जान, इस बारिश में तड़प न होगी, तुम सिर्फ मेरी और सिर्फ मेरी होगी ".
मैंने बड़े यकीन के साथ , तुम्हारी आँखों के छलकते आईने में , अपने मचलते हुए चेहरे को देखा था.
तुमने इन नाजुक से हाथो को अपनी हथेलियों में छुपाते हुए कहाँ था मुझसे ,
"इन चूड़ियों की खन - खन , और इस पायल की छन छन में बस मेरा ही नाम होगा" ,
तुमने इन नाजुक से हाथो को अपनी हथेलियों में छुपाते हुए कहाँ था मुझसे ,
"इन चूड़ियों की खन - खन , और इस पायल की छन छन में बस मेरा ही नाम होगा" ,
वह पल आज बड़ा रुलाते हैं मुझको .
मेरी चूड़ी और मेरे कंगन बार बार ये सवाल करते हैं क्या वह सब एक खुबसूरत सा सपना था,
जो रात के अँधेरे में गुम हो गया .
क्या कहूँ उनसे ? तुम ही कहो.. .
मेरी भीगी सी पलकों से गिरते हुए मोती को छु कर, कहाँ था तुमने ," इन बूंदों में भी नशा सा हैं" .
मेरी चूड़ी और मेरे कंगन बार बार ये सवाल करते हैं क्या वह सब एक खुबसूरत सा सपना था,
जो रात के अँधेरे में गुम हो गया .
क्या कहूँ उनसे ? तुम ही कहो.. .
मेरी भीगी सी पलकों से गिरते हुए मोती को छु कर, कहाँ था तुमने ," इन बूंदों में भी नशा सा हैं" .
मैंने शर्माके जब अपना चेहरा घुंघट में छुपा लिया , तुमने होले से कहा था,
"आज घुंघट को यों ही रहने दो , इस सावन में मेरा चाँद घटा की चादर में छुपा न होगा" .
आज वही घुंघट बार बार मुझसे लिपट लिपट कर पूछा करती हैं कहाँ हो तुम.
तुम ही बताओ क्या कहूँ में.
मेरी बिंदिया को चांदनी कहा करते थे न तुम ,तो फिर आज इतना अँधेरा क्यों हा,
क्यों आज वही बिंदिया अंधेरो में सिसकिया ले रही हैं .
क्या तुम सारी रौशनी अपने साथ समेट कर ले गए हो ?
तुम ही कहों .............................
"आज घुंघट को यों ही रहने दो , इस सावन में मेरा चाँद घटा की चादर में छुपा न होगा" .
आज वही घुंघट बार बार मुझसे लिपट लिपट कर पूछा करती हैं कहाँ हो तुम.
तुम ही बताओ क्या कहूँ में.
मेरी बिंदिया को चांदनी कहा करते थे न तुम ,तो फिर आज इतना अँधेरा क्यों हा,
क्यों आज वही बिंदिया अंधेरो में सिसकिया ले रही हैं .
क्या तुम सारी रौशनी अपने साथ समेट कर ले गए हो ?
तुम ही कहों .............................
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